महिला दिवस का औचित्य


महिला का उद्देश्य सिर्फ महिलाओं के प्रति श्रद्धा और सम्मान बताना है। समाज में नारी के स्तर को उठाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं की आध्यात्मिक, शैक्षिक, सामजिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति में वृद्धि करना, बिना इसके महिला सशक्तिकरण असंभव है। महिला सशक्तिकरण के दावे खूब किए जाते हैं। सरकारी और सामाजिक दोनों स्तरों पर। मगर वाकई महिलाएं कितनी सशक्त हुईं, यह न किसी से पूछने की जरूरत है और न ही किताब के पन्नों को पलटने की। आज हर महिला समाज में धार्मिक रूढिय़ों, पुराने नियम कानून में अपने आप को बंधा पाती है। पर अब वक्त है कि हर महिला तमाम रूढिय़ों से खुद को मुक्त करे। यह काम एक महिला अकेले कर सकती है, मगर जब पुरुषों का साथ मिलेगा तो काम जल्दी हो जाएगा। देखा जाए तो प्रकृति ने औरतों को खूबसूरती ही नहीं, दृढ़ता भी दी है। प्रजनन क्षमता भी सिर्फ उसी को हासिल है। भारतीय समाज में आज भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य दिन-रात किए जा रहे हैं। आज जरूरत है कि देश में बच्चियों को हम वही आत्मविश्वास और हिम्मत दें जो लड़कों को देते हैं। इससे प्रकृति का संतुलन बना रहे। इसलिए जरूरी है कि इस धरती पर कन्या को भी बराबर का सम्मान मिले। साथ ही उसकी गरिमा भी बनी रहे। एक नारी के बिना किसी भी व्यक्ति का जीवन सृजित नहीं हो सकता है। जिस परिवार में महिला नहीं होती, वहां पुरुष न तो अच्छी तरह से जिम्मेदारी निभा पाते हैं और ना ही लंबे समय तक जीते हैं। वहीं जिन परिवारों में महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारी होती है, वहां महिलाएं हर चुनौती, हर जिम्मेदारी को बेहतर तरीके से निभाती हैं और परिवार खुशहाल रहता है। अगर मजबूती की बात की जाए तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा मजबूत होती हैं क्योंकि वो पुरुषों को जन्म देती हैं।
आज जरूरत है कि समाज में महिलाओं को अज्ञानता, अशिक्षा, संकुचित विचारों और रूढि़वादी भावनाओं के गर्त से निकालकर प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए उसे आधुनिक घटनाओं, ऐतहासिक गरिमामयी जानकारी और जातीय क्रियाकलापों से अवगत कराने के लिए उसमे आर्थिक, सामजिक, शैक्षिक, राजनैतिक चेतना पैदा करने की। जिससे कि नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाज को आगे बढ़ाने में सहयोग कर सके।
सही मायने में महिला दिवस तब सार्थक होगा जब असलियत में महिलाओं को वह सम्मान मिलेगा जिसकी वे हकदार हैं। इसके साथ ही समाज को संकल्प लेना चाहिए कि भारत में समरसता की बयार बहे, भारत के किसी घर में कन्या भ्रूण हत्या न हो और भारत की किसा भी बेटी को दहेज के नाम पर न जलाया जाए। विश्व के मानस पटल पर एक अखंड और प्रखर भारत की तस्वीर तभी प्रकट होगी जब हमारी मातृशक्ति अपने अधिकारों और शक्ति को पहचान कर अपनी गरिमा और गौरव का परिचय देगी और राष्ट्र निर्माण में अपनी प्रमुख भूमिका निभाएगी।



महिला दिवस का एक स्याह पहलू भी है। सवाल यह भी है कि महिला दिवस की एक दिन की औपचारिकता क्यों। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में देवी की पूजा नहीं होती है। हमारा देश देवी को पूजता भी है और हमारे सम्माननीय नारियों और देवियों के लिए नतमस्तक भी है। लेकिन फिर भी हमें महिला दिवस नहीं मनाना चाहिए, क्योंकि जहां मां, पुत्री, बेटी, लड़की, महिला या स्त्री के शील धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती, वहां महज एक दिन महिलाओं के प्रति वफादारी दिखाने का क्या औचित्य है? सिर्फ एक दिन के लिए महिलाओं का गुनगान करके उन्हें सम्मान देना और दूसरी और उनको छलना, उनके साथ कपट भाव रखना, रास्ते चलते छेड़छाड़ करना, स्त्री को लज्जित करना, शराब पीकर महिलाओं के साथ मारपीट करना ...यह सब हमारे पुरुष वर्ग को शोभा नहीं देता।  इससे अच्छा यही होगा कि हम महिला दिवस मनाना ही भूल जाएं। अगर सच में महिलाओं के प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान है तो सबसे पहले हमें चाहिए कि हम उन मां, बहन, बेटियों, बहुओं और उन मासूम बच्चियों के प्रति पहले ते अपना नजरिया बदलें और उन्हें हीन दृष्टि से देखना बंद करें। पराए घर की किसी महिला या लड़की को हम हमारी घर की बेटी समझ कर उन्हें भी उसी नजरिए देखें, जो नजरिया हम अपनी मां और बहनों के लिए रखते करते हैं।



महिला दिवस मनाने का केवल यह मतलब नहीं है कि एक दिन तो बहुत ऊंचे स्थान पर बैठाकर मान-सम्मान दे दिया जाए और दूसरे ही दिन राह चलती लड़कियों से छेडख़ानी शुरू कर दी जाए। यहां युवा तो युवा, बुजुर्ग भी इन मामलों में पीछे नहीं है। रास्ते चलते महिलाओं-लड़कियों पर फब्तियां कसना इनकी आदत शुमार में है और सबसे ज्यादा शर्मनाक बात तो तब हो जाती है जब हैवानों का दल 3-5 साल की मासूम बच्चियों को भी अपना निशाना बनाने में नहीं चूकते और मौका देखते ही उनका शीलहरण करके उन्हें नारकीय जीवन में पहुंचा देते है।  



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को देखा जाए तो करीब 100 साल पहले मजदूर महिलाएं काम के घंटे कम करवाने, बराबर वेतन पाने और वोट डालने के अधिकार को लेकर लड़ाई लड़ रही थीं पर आज जिस तरह से महिला दिवस मनाया जा रहा है वो उसके उलट है क्योंकि आज कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए मजदूर महिलाओं (वर्किंग क्लास वीमेन) से तय समय से ज्यादा घंटे काम करवा रही हैं। घर संभालने वाली महिलाओं को आज भी उनके काम के लिए न कोई सम्मान मिलता है और न ही कोई वेतन। उनके काम को उनकी और सिर्फ उनकी जिम्मेदारी और कर्तव्य बताया जाता है और कभी भी महिलाओं को मजदूर का दर्जा नहीं मिलता है। महिलाएं आज हर क्षेत्र में काम करने के लिए आगे आ रही हैं और बहुत सी महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी हैं पर क्या उनकी आर्थिक आजादी उन्हें सही मायने में आजाद कर पा रही है।



यह सच्चाई है कि अगर महिलाएं आधी आबादी हैं तो उनके सरोकार भी आधा स्थान मांगते हैं। आज महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। वे अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं। वे समाज में समानता चाहती है, जहां पति-पत्नी का समान दर्जा हो। वह पुरुष की हां में हां मिलाने वाली प्राचीन भारतीय नारी की छवि से अलग अपनी स्वतंत्र सोच रखने वाली आज की महिला है। वह अपनी पसंद-नापसंद रखती है और उसे अपनी बात कहना भी आता है। हाल ही में एक फिल्म आई 'थप्पड़Ó, जिसमें पति अपनी पत्नी को एक पार्टी में सबके बीच थप्पड़ मारता है। हमें यह स्वीकारना होगा कि ऐसा व्यवहार सदियों से चला आ रहा है, जब पुरुष अपने निकटतम रिश्ते में रह रही महिला पर अपनी मर्दानगी का रौब झाड़ता रहा है। वह पत्नी, मां, बेटी आदि स्त्रियों पर हाथ उठाने से भी बाज नहीं आता। ऐसे में उसकी शिकायत करने या उसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए पारंपरिक हिंदी सिनेमा प्रेरित नहीं करता, बल्कि वह इस माध्यम से भी स्त्री को घरेलू महिला होने का संदेश देता-सा नजर आता है। यानी थप्पड़ खाकर चुप रहना औरत की नियति है! जिन महिलाओं ने इसके विरोध में आवाज उठाई, हर बार उन्हें उपहास या बहिष्कार का केंद्र बना दिया गया। यह भी मनोविज्ञान ही है कि महिलाओं को अपने हक की आवाज उठाने से भी रोक दिया गया।
देश में कई महिलाएं ऐसी भी हैं जो आजकल बढ़ती महंगाई और अच्छे से अच्छा दिखने, रहने और दिखाई देने की चाह में अपना अस्तित्व कहीं खोती जा रही हैं। आज अधिकतर कम पढ़ी-लिखी लड़कियां समय से हारते हुए और महंगाई के बोझ तले दबते हुए अपने कदम वेश्यावृत्ति की ओर बढ़ा रही हैं या फिर कुछ सामाजिक तत्व उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देते हैं जो कि सही नहीं है। यह एक महिला का, देश में उन देवियों का जिनकी हम पूजा करते हैं उनका बड़ा अपमान है। साल के मात्र एक दिन को महिला दिवस के रूप में मनाकर बाकी के 364 दिन हम उनकी उपेक्षा और उन पर अत्याचार ही करते हैं। सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब विश्व भर में महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से संपूर्ण आजादी मिलेगी, जहां उन्हें कोई प्रताडि़त नहीं करेगा, जहां उन्हें दहेज के लालच में जिंदा नहीं जलाया जाएगा, जहां कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जाएगी, जहां बलात्कार नहीं किया जाएगा, जहां उसे बेचा नहीं जाएगा। समाज के हर महत्वपूर्ण फैसलों में उनके नजरिए को महत्वपूर्ण समझा जाएगा। उन्हें भी पुरूष के समान एक इंसान समझा जाएगा। जहां वह सिर उठा कर अपने महिला होने पर गर्व करे, न कि पश्चाताप कि काश मैं एक लड़का होती।



                                        ज्योति मांझी